Saturday 21 January 2017

शहर किताब हो गया.

उस शहर के बाशिंदों का
रहना हराम हो गया
उसने ज़रा क्या लिख दिया ,
ये शहर किताब हो गया .
अब घाट भी वहीँ हैं,
और चाय भी वही है.
भीड़ भी वहीँ हैं,
बाज़ार भी वही है.
चिल्लाती भीड़ का नाम,
अबसे ट्रैफिकजाम हो गया.
उसने ज़रा क्या लिख दिया,
राजा गुलाम हो गया.
भूला भुलाया नक्शा
फिर सरेआम हो गया.
हर छोटी बड़ी झड़प का,
चर्चा तमाम हो गया
जो चुप रहा था अबतक,
झट अलीराम हो गया.
उसने ज़रा क्या लिख दिया,
यहाँ कत्लेआम हो गया.
सुबहें हमारी अलसी,
आँगन में बैठी तुलसी,
कनेरगुलाबगेंदा,
हवा रही थी चल सी.
बरगद का पेड़ भी अब,
बैठकमज़ार हो गया.
हर मुद्दा हर वादा,
सब दरकिनार हो गया.
उसने ज़रा क्या लिख दिया,
पक्का करार हो गया.
कुछ चंद लोग बोले,
सबकुछ ख़राब हो गया.
जो जानता था सबकुछ,
वो लाजवाब हो गया.
चंदा रहा ना मामा,
अब माहताब हो गया.
टेबल पे रखा मुद्दा,
निचली दराज हो गया.
बस्ती का हर बाशिंदा,
अब बादशाह हो गया.
उसने ज़रा क्या लिख दिया,
तख्ता तबाह हो गया.
लफ़्ज़ों का अल्हड़ हिलना,
अब वाहवाह हो गया.
उसने लिखा है ये सब,
वो खुद भी किताब हो गया.
उसने ज़रा जो लिख दिया,
मेरा शहर किताब हो गया.

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