Saturday, 21 January 2012

पाजीपन!

एक जुबां चुपचाप रहती है,
इक जुबां बोले जाती है.
राज़ हम बनाते हैं
इक जुबां खोले जाती है.
अगर हम चुप भी रहते हैं.
तो पाजी दिल धड़कता है.
बड़ा भोला ये बनता है
रह रह के फड़कता है.
मोहब्बत मानती इसको 
बड़ा ऊंचा मसीहा है.
न जाने कोई के यह,
संगदिल न किसी का है.
महबूब के गुस्से पे,
इसे तो प्यार आता है,
इसी प्यार की खातिर,
ये उसे गुस्सा दिलाता है.
और उसी गुस्से पे रह रह के,
इसे गुस्सा भी आता है,
कहे के वो महबूब भी कैसा,
जो पल पल रूठ जाता है.
- अभ्युदय 

Monday, 16 January 2012

Library!!


भूल न जाना

ये जो लम्हे वक़्त टपकाता जा रहा है,
इन्हें तुम भूल न जाना.
जो मेरी मासूमियत पे तुम्हे प्यार आता है,
इसे तुम भूल न जाना.
जब मैं तुम्हारी टांग खींचता हूँ,
जानता हूँ, तुम खीज जाती है.
पर फिर भी जिस वजह से तुम हंस देती हो,
उस वजह को भूल न जाना.
जो घंटो हमने फ़ोन पे बातें करी हैं,
जिनका न कोई सर न कोई पैर था,
उन बातो की गहराई को
कहीं भूलोगी तो नहीं?
हफ्ते में एक बार ही सही,
मेरे उथलेपन की गहराई में डुबकी लगाना,
देखो, भूल न जाना.
मुझे डर है के मेरा चेहरा वक़्त के साथ बदल जाएगा
फिर न जाने तुम्हे प्यार आएगा के गुस्सा आएगा
फिर अगर मैं हंसू तो तुम भी हंसोगी न?
हंसने की वजह कुछ भी हो, वादा करो, हंसोगी न?
और हाँ! मेरा जन्मदिन याद रखना,
देखो.....

Thursday, 12 January 2012

लैला को मत बताओ!

मजनूं ने लैला के कान में कहा,
आई लव यू लैला.
 पर इस बात को सीक्रेट रखना,
क्यूंकि अभी फटा है मेरा थैला.
और मेरा कुरता है,
मैला कुचैला.
लैला बोली ठीक है,
तुम जैसा बोलो मेरे छैला
आज से तुम्हारी,
बस तुम्हारी है ये लैला.

बात ख़त्म हो गयी,
मजनूं अपने घर गया, 
लैला अपने घर गयी,

एक दिन मार्केट में मजनूं
ने बनिए के सामने थैला फैलाया.
बनिए ने गेहूं और चावल डाले,
और मंद मंद मुस्काया

मजनूं कन्फ्यूस्ड!
यार ये माजरा क्या है.
दाल चावल के बीचों बीच.
अचानक ये बाजरा क्या है? 

रस्ते चलते लोग मजनू को
कनखियों से देखते.
 कोई सिरियेस हो के घूरता,
कोई हंस देता देख के.

मजनूं बेचारा, झेंपा झल्लाया
था वो बहुत भोला.
अब कभी देखे अपने कुरते को,
कभी छुपाये अपना झोला


बहुत हँसे गाँव के मुखिया जी,
बोले मजनूं बेटा, घर जाओ.
अगली बार अगर सीक्रेट रखनी हो कोई बात,
तो लैला को मत बताओ !!

-- अभ्युदय

Wednesday, 11 January 2012

पहल

कुलबुलाते सागर ने जब रेत को तराशा,
सीपों की खाली जेबों को तलाशा,
तो खाली सीप हंस दी,
एक कंकर बाहर लुढ़क आया
बस? इतना सा?
सागर हैरान था.
सीप मुस्कुराई,
बोली बस इतना ही था,
न ज्यादा न कम,
एक कंकर से तू क्या करेगी?
यह तो इतने बड़े साहिल में कहीं खो जायेगा
सीप चुप थी,
साहिल को फुर्सत न थी,
वो अपनी मौज में था.
सीपी बोली- इतने बड़े साहिल का,
एक कतरा मैंने चुराया है.
अब बताना मुश्किल है,
के मैं साहिल से निकली हूँ,
या साहिल मेरा साया है.
सागर की समझ में थोडा बहुत आया,
तभी एक लहर आई और सीप से टकराई

एक कंकर फिर से, सीपी से लुढ़क आया.