दिल्ली में ना, इधर से उधर जाने के बड़े विकल्प हैं. आप समझ नहीं पाएँगे के कौनसा तरीका अख्तियार करें. द्रुतगति से भागते हुए ऑटो को रोक कर दरख्वास्त करें, साइकिल रिक्शा लें, मेट्रो लें या फिर फ़ोन निकाल के एप से टैक्सी बुलाएं और रौब से ऐसे बैठें जैसे ज़िन्दगी में कभी कार से नीचे कदम ही नहीं रखा हो. मेट्रो में जाने का आम आदमी का एक नुकसान ये है की मेट्रो के ए ऍफ़ सी गेट से जैसे ही आप अन्दर दाखिल होते हैं, आप भारतीय नहीं रह जाते. न आपका दीवार को गुटखे की पीक से रंगने का जी करता है, न ही आप पाउच और पन्नी यहाँ वहां गिराते चलते हैं. अन्दर कूड़ेदान भी नहीं मिलेगा तब भी आप अपना कचरा साथ ले जाते हैं. कुछ बहादुर, बिरले वीर ही होते हैं जो मेट्रो को गन्दा करने की कुव्वत रखते हैं. उन जवानों और बूढों को मेरा सलाम है.
साइकिल रिक्शा पे दिल्लीवाले दया कर के बैठते हैं कि गरीब का घर चल जाएगा. साइकिल रिक्शा का ही विकसित पोकीमोन स्वरुप है ई-रिक्शा. इसपे आप जान हथेली पर रख कर बैठ जाइए. माशा अल्लाह सस्ते दाम में और जल्द से जल्द आपको मंजिल पे दे पटकेगा.
ऑटो की शान में जितना कहूं उतना कम है. ऑटो में इंसान बैठता नहीं, वक़्त और हालत उसे बैठाते हैं. पहले तो आपको ऑटोवाले से मिन्नत करनी होती है वो अपनी मंजिल और आपकी मंजिल के एक कर ले. कुछ बेवक़ूफ़ लोग मीटर से चलने बोल देते हैं और वो चल देता है. आपको पीछे छोड़ कर. दिल्ली में हैं तो ये मत कहिये कि भैया मीटर से चलो. कहिये, भैया मीटर से दस ऊपर ले लेना. ये संवाद ऑटोवाले के लिए खुल जा सिमसिम सरीखा कोड होता है.
ऑटो को यातायात के नियमों में भी छूट मिली हुई है. आप कार लिए हैं तो लाल बत्ती पे रुकना होगा. पर यदि आप ऑटो में हैं तो कूद कर फुटपाथ पर चढ़ जाइये और वहां से ऑटो मोड़ कर बत्ती पे सब गाड़ियों के आगे ले आइये. सारी गाड़ियाँ मुंह बाए देखती रहेंगी आप सर घुमाइए, अगर आस पास पुलिसवाला नहीं है तो द्रुत गति से निकाल दीजिये अपना ये अनोखा तिपहिया वाहन.
ऑटो में यदि आप महिला मित्र के साथ हैं तो सिग्नल पर रोमांस के काफी मौके उपलब्ध कराये जाते हैं. एक बिखरे बाल लिए बच्चा आपको फूलों का दस्ता देगा, कहेगा कि वो भगवान् से दुआ करेगा की आपकी जोड़ी सलामत रहे. फिर चाहे आप बहन या सहेली के साथ ही क्यूँ न बैठे हों. उसको मतलब गुलाब बेचने से है. आप ध्यान मत दीजिये तो वो आगे बढ़ जाएगा. फिर आ जाएँगे कुछ और लोग ताली बजा बजा कर दुआ देते. आपने मांगी हो या न मांगी हो, दुआ मुफ्त मिलेगी. और फिर मिलेगा मुफ्त ये डायलाग कि "अबे दे न चिकने!" ऑटो में ये सुविधा उपलब्ध है. कार में तो आप शीशा चढ़ा लेंगे. ऑटो में क्या चढ़ाएंगे? ऑटो में बैठना हो तो नियम कहता है की चलते ऑटो को रोको. रुका ऑटो अपने रुके होने का किराया भी आपसे वसूलेगा. पर ये कोई नहीं बताता की चलता ऑटो रोकने के लिए कुछ अर्हताएं होनी चाहिए. पहले तो बुलंद आवाज़ जो एक बार चीखने पे ऑटो पट्ट से रुक जाये. दूसरा धैर्य क्यूंकि ज़रूरी नहीं कि आप जहाँ जाइएगा वहां ऑटो को भी जाना होगा. ऑटो का अपना मन होता है.
दिल्ली के ऑटोवाले फिर भी शरीफ हैं. बंगलौर में मैंने ऑटो लिया था जिसने मुझसे तीन किलोमीटर के पांच सौ रुपये लिए थे. मंगलौर के ऑटोवाले तो ओला उबर वालों को मार मार के भुर्ता बना देते हैं की स्साले हमारी सवारी बिठाएगा? दिल्ली में ऐसी मार पिटाई का कोई रिवाज नहीं है. बहुत ज्यादा ऑटो हैं और कुछ का धंधा नहीं भी चलता पर शराफत से रहते हैं. ताकते हैं जब कोई ओला या उबर से निकल के कैशलेस पेमेंट करता हुआ, होठों को गोल कर के सीटी बजाता हुआ निकल जाता है. हसरत भरी नज़र से वो उसे देखते हैं और मन ही मन सोचते होंगे के बेटा जिस दिन पेटीएम् में साढ़े तीन सौ रुपैया नहीं होगा, तब हम ही याद आएँगे.
No comments:
Post a Comment
Don't leave without saying anything...!